Breaking News
देश को गुलाम बनाने वालों के साथ कोई समझौता नहीं करूंगा- पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान
कुमाऊं के जंगलों की आग बुझाने में लगे वायुसेना के हेलीकॉप्टर
आईपीएल 2024 के 43वें मैच में आज दिल्ली कैपिटल्स और मुंबई इंडियंस होगी आमने- सामने 
व्हाट्सएप ने दिया दिल्ली हाई कोर्ट को जवाब, कहा- भारत में बंद कर देंगे काम
उत्तराखंड संस्कृत शिक्षा बोर्ड – उत्तरकाशी के राहुल व्यास ने दसवीं की परीक्षा में किया टॉप
क्या आप भी तरबूज और खरबूज को लेकर कन्फ्यूजऩ में हैं, तो यहां जानें गर्मी में कौन ज्यादा फायदेमंद
चारधाम यात्रा शुरू होने से पहले सभी व्यवस्थाएं पूर्ण कर ली जाएं- मुख्यमंत्री
रॉबर्ट वाड्रा पहुंचे ऋषिकेश, गंगा आरती में किया प्रतिभाग
विकास के दावों के बीच भूख की त्रासदी झेलने के लिए लोग मजबूर

भाजपा के इस दांव में खतरे भी

हरिशंकर व्यास
लेकिन क्या भाजपा इस दांव में कामयाब हो पाएगी? कई बार इस तरह के दांव उलटे पड़ते हैं। कई बार कमजोर के प्रति सहानुभूति होती है। बिहार, ओडिशा और उत्तर प्रदेश में तो डबल इंजन की डबल एंटी इन्कम्बैंसी हो सकती है। बिहार में जनता दल यू को साथ लेने के बाद भाजपा का पुरानी और छोटी सहयोगी पार्टियों से तालमेल बिगड़ा है क्योंकि उनको देने के लिए भाजपा के पास सीटें कम हैं।

दूसरी ओर विपक्षी गठबंधन की पार्टियों में बेहतर तालमेल बना है। ध्यान रहे पिछली बार किशनगंज सीट पर मुकाबला इस वजह से था कि ओवैसी की पार्टी के उम्मीदवार को करीब तीन लाख वोट मिल गए थे। इस बार ऐसा होने की संभावना बहुत कम है। इसलिए किशनगंज सीट पर कांग्रेस या विपक्षी गठबंधन के उम्मीदवार के जीतने के चांस ज्यादा हैं। इसी तरह सीमांचल की अनेक सीटों पर और पिछली बार कांटे की टक्कर वाली यादव बहुल सीटों पर भी मुकाबला आसान नहीं है।

पप्पू यादव के साथ आने से सीमांचल का गणित अलग ढंग से बन रहा है। सीमांचल में पूर्णिया से लेकर अररिया, किशनगंज, सुपौल, मधेपुरा, खगडिय़ा, कटिहार तक पटना में पाटलिपुत्र और मगध में जहानाबाद जैसी सीटों पर कांटे का मुकाबला है। झारखंड में सिंहभूम सीट पर कोड़ा परिवार की मदद से भाजपा ने अपनी स्थिति मजबूत की है लेकिन यह इस बात की गारंटी नहीं है कि वह पिछली बार की तरह 14 में से 12 सीट जीत जाए। पिछली बार तीन सीटों पर कांटे की टक्कर हुई थी। लोहरदगा में कांग्रेस नौ हजार और खूंटी में डेढ़ हजार वोट से हारी थी।

दुमका में शिबू सोरेन भी 30 हजार के करीब वोट से हारे थे। इन सीटों पर इस बार भाजपा के लिए लड़ाई आसान नहीं है। इसके अलावा लहर के बावजूद पिछले दोनों चुनावों में भाजपा राजमहल सीट नहीं जीत पाई। ऐसा लग रहा है कि चार से छह सीटों पर विपक्षी गठबंधन बहुत मजबूत है।

शास्त्रीय राजनीति के नजरिए से देखें तो ओडिशा में भाजपा ने वह गलती की है, जो पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने और केरल में कांग्रेस व लेफ्ट मोर्चा ने नहीं की। ओडिशा में बीजू जनता दल और भाजपा सत्तारूढ़ व मुख्य विपक्षी पार्टी हैं। उनके साथ आ जाने से विपक्ष का पूरा स्पेस कांग्रेस के लिए खाली हो गया। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 13 फीसदी वोट वाली पार्टी थी, लेकिन इस बार वह बीजू जनता दल और भाजपा दोनों के खिलाफ लड़ेगी तो दोनों का विरोधी वोट उसी की ओर जाएगा।

बीजद और भाजपा का वोट पिछली बार 81 फीसदी से ऊपर था, जिसमें इस बार बड़ी कमी आएगी। अपनी लोकसभा की आठ सीटों में कुछ बढ़ोतरी के लिए भाजपा ने सत्तारूढ़ बीजद से तालमेल का फैसला किया है, जिससे विपक्ष का स्पेस एक बार कांग्रेस को मिलेगा, जो भाजपा के मुख्य विपक्षी बनने से तीसरे स्थान पर चली गई थी।

इस बीच ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री और दिग्गज आदिवासी नेता गिरधर गमांग की पार्टी में वापसी हुई है तो तटीय ओडिशा के कद्दावर नेता श्रीकांत जेना भी लौटे हैं। वे तटीय ओडिशा की तीन अलग अलग सीटों से सांसद रह चुके हैं। सो, ऐसा न हो कि कांग्रेस को निपटाने का यह दांव भाजपा को भारी पड़ जाए?

उत्तर प्रदेश में भाजपा का दांव अभी चल रहा है क्योंकि वहां राममंदिर का उद्घाटन हुआ है और रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा हुई है। लेकिन वहां भी ज्यादा सीटें लडऩे की भाजपा की जिद के चलते सहयोगी पार्टियों को गिनी चुनी सीटें मिली हैं। हां, यह जरूर है कि भाजपा ने नए सहयोगी जयंत चौधरी की पार्टी रालोद के एक नेता को मंत्री बना दिया है तो सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर को भी मंत्री बना दिया है।

भाजपा ने अपनी चार सहयोगी पार्टियों को छह सीटों में निपटाया है। रालोद और अपना दल को दो-दो तो ओमप्रकाश राजभर और संजय निषाद की पार्टी को एक-एक सीट दी गई है। इनके साथ साथ भाजपा अपना पिछड़ा नेतृतव आगे कर रही है। लेकिन दूसरी तरफ अखिलेश यादव भी यादव मोह छोड़ कर अन्य पिछड़ी जातियों को ज्यादा सीटें दे रहे हैं।

पिछली बार की तरह इस बार शिवपाल यादव की पार्टी उनको डैमेज नहीं कर रही है, बल्कि शिवपाल यादव अब साथ में हैं और लोकसभा चुनाव भी लड़ रहे हैं। बसपा प्रमुख मायावती के निष्क्रिय होने से उनका वोट बिखर रहा है, जिसका एक हिस्सा सपा और कांग्रेस के साथ जा सकता है। इस बार 20 फीसदी के करीब मुस्लिम आबादी में भी कोई कंफ्यूजन नहीं है क्योंकि कांग्रेस और सपा साथ लड़ रहे हैं। ऊपर से पार्टी का आंतरिक कलह कई मामलों में देखने को मिला है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back To Top