Monday, December 4, 2023
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नेपाल की नई सरकार और भारत

डॉ. एन. के. सोमानी
कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल-माओवादी सेंटर (सीपीएन-एमसी) के मुखिया पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड नेपाल के नये प्रधानमंत्री होंगे। रविवार को तेजी से बदले सियासी घटनाक्रम में उस वक्त नाटकीय मोड़ आ गया जब गठबंधन सरकार में शामिल प्रंचड पाला बदल कर ओली के खेमे में चले गए थे। दोनों नेताओं के बीच सरकार निर्माण के साथ-साथ प्रधानमंत्री पद के लिए प्रचंड के नाम की सहमति बनी। प्रचंड तीसरी बार नेपाल के पीएम बन रहे हैं। पहली बार 2008-09 और दूसरी बार 2016-17 तक नेपाल के पीएम रह चुके हैं।

नेपाल की 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा के लिए नवम्बर में चुनाव हुए थे। चुनाव नतीजों में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। मौजूदा प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की नेपाली कांग्रेस को सबसे अधिक 80 सीटें मिलीं। ओली की पार्टी को 78 सीट और प्रचंड की पार्टी को महज 30 सीटें मिली हैं। इसके बावजूद वे नेपाली कांग्रेस के साथ गठबंधन में पहले ढाई साल के लिए पीएम बनना चाहते थे। दूसरी ओर, नेपाली कांगेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सरकार का नेतृत्व करने पर अड़ी हुई थी। उधर, राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी द्वारा प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए निर्धारित समय सीमा रविवार को शाम पांच बजे समाप्त हो रही थी। देउबा के साथ बातचीत विफल होने के बाद प्रचंड प्रधानमंत्री पद के समर्थन के लिए कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-यूनाइटेड मार्क्सवादी लेनिनवादी (सीपीएन-यूएमएल) के अध्यक्ष केपी शर्मा ओली के निजी आवाज पर पहुंचे जहां दोनों नेताओं के बीच सरकार निर्माण के फार्मूले पर सहमति हुई।

सहमति की शर्त के मुताबिक सीपीएन-यूएमएल समेत छह पार्टियों के समर्थन से प्रचंड पहले ढाई साल के लिए नेपाल की कमान संभालेंगे और अगले ढाई साल के लिए सीपीएन-यूएमएल के नेता केपी शर्मा ओली नेपाल के पीएम होंगे। प्रचंड के ओली के गठबंधन में शामिल होने के बाद नेपाल की तीनों प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता प्रचंड, ओली और माधव कुमार नेपाल एक खेमे में आ गए हैं। प्रचंड और ओली, दोनों भारत विरोधी माने जाते हैं। ऐसे में सवाल  है कि आने वाले दिनों में भारत-नेपाल संबंध किस दिशा में आगे बढ़ेंगे। यह सवाल इसलिए वाजिब लग रहा है क्योंकि अपने प्रचार अभियान के दौरान ओली कह चुके हैं कि अगर वे सत्ता में आते हैं, तो भारत के क्षेत्र कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को वापस लेकर आएंगे। ये क्षेत्र सदियों से भारत के पास हैं। अब प्रचंड के साथ ओली सत्ता में हैं, तो निश्चित ही चुनावी वादा पूरा करने के लिए भारत के साथ तनाव को हवा देंगे। दूसरा, ओली की चीन परस्ती पहले से ही जग जाहिर है। हालांकि, नेपाली कांग्रेस के साथ काम करते हुए प्रचंड के भारत विरोध रुख में बदलाव आया है। फिर भी सवाल तो परेशान करता ही है कि अगर प्रचंड का चीन प्रेम जाग उठा तो भारत, नेपाल के रास्ते आने वाली रणनीतिक चुनौतियों से कैसे निबट सकेगा।

नवम्बर, 2019 में जब नेपाल में ओली की सरकार थी, उस वक्त कालापानी इलाके पर नेपाल ने दो टूक कह दिया था कि भारत को इस क्षेत्र से अपनी सेना हटा लेनी चाहिए। उस वक्त भी सवाल उठा था कि ओली की आक्रामक भाषा के पीछे कहीं चीनी मनसूबे तो काम नहीं कर रहे। हालांकि, 2014 में नरेन्द्र मोदी की नेपाल यात्रा के दौरान तत्कालीन नेपाली प्रधानमंत्री कोइराला ने कालापानी का मुद्दा उठाया था और कालापानी पर नेपाल का अधिकार बताते हुए इसे हल करने की अपील की थी। 1996 में कालापानी इलाके के संयुक्त विकास के लिए महाकाली संधि के तुंरत बाद नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों ने कालापानी पर दावा करना शुरू कर दिया। उधर, चीन लंबे समय से इस इलाके पर कब्जा करने की कोशिश करता रहा है। चीन की शह पर ही नेपाल में जब-तब कालापानी को लेकर प्रदर्शन होते रहे हैं। यह वही जगह है जहां भारत 1962 के युद्ध में चीन के समक्ष मजबूती से डटा हुआ था। भारत को डर है कि अगर कालापानी नेपाल के अधिकार क्षेत्र में चला गया तो चीन वहां अपने पांव जमा लेगा। भारत की घेराबंदी में जुटे चीन की भी यही मंशा है।

चीन की महत्त्वाकांक्षी परियोजना वन बेल्ट वन रोड में सहयोगी होने और व्यापारिक हितों के कारण नेपाल का झुकाव भारत से कहीं अधिक चीन की ओर है। नवम्बर, 2019 में पीएम मोदी ने काठमांडू में हुए बिम्सटेक देशों के सामने सैन्य अभ्यास का प्रस्ताव रखा तो ऐन वक्त पर चीन के दबाव में नेपाल ने सैन्य अभ्यास में शामिल होने से इंकार कर दिया जबकि बाद में उसने चीन के साथ सैन्य अभ्यास में भाग लिया था। भारत और नेपाल के बीच भारतीय सेना की गोरखा बटालियन में गोरखा सैनिकों की भर्ती के मुद्दे पर भी तनातनी की स्थिति बनी हुई है। नेपाल नाराज है कि भारत सरकार ने सेना में भर्ती की अग्निपथ योजना को लेकर उससे चर्चा तक नहीं की। नेपाली विदेश मंत्री नारायण खडक़े नेपाल में भारतीय राजदूत नवीन श्रीवास्तव से मिलकर इस योजना के तहत नेपाली युवकों की भर्ती की योजना को स्थगित करने की मांग कर चुके हैं।

नेपाल का आरोप है कि अग्निपथ योजना नवम्बर, 1947 में भारत-ब्रिटेन एवं नेपाल के बीच हुए त्रिपक्षीय समझौते का उल्लंघन है। हालांकि, भारत ने नेपाल को आश्वस्त किया है कि अग्निपथ योजना के सारे फायदे, जो भारतीय युवाओं को मिलेंगे, नेपाल के गोरखाओं को भी हासिल होंगे। थल सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडे की नेपाल की पांच दिवसीय यात्रा के दौरान इस मुद्दे को सुलझाने की कोशिश की गई थी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। अब भारत ने भी दो टूक कह दिया है कि अगर नेपाली गोरखा अग्निवीर बनने के लिए नहीं आते हैं, तो उनकी खाली जगह को भारत में रह रहे गोरखाओं से भरा जाएगा। अभी 30 हजार से अधिक गोरखा भारतीय सेना में हैं। नेपाल में अग्निपथ योजना के तहत 1300 सैनिकों की भर्ती की जानी है।

हालांकि, भारत और नेपाल, दोनों समान संस्कृति और मूल्यों वाले पड़ोसी हैंं। इसके बावजूद दोनों देशों के संबंध निर्धारित दायरे से बाहर नहीं निकल पाए हैं, तो इसकी बड़ी वजह कहीं न कहीं नेपाल का चीन प्रेम ही है। ओली के समर्थन से बन रही नेपाल की नई सरकार भारत के साथ रिश्तों को किस तरह आगे बढ़ाती है, यह अगले कुछ दिनों में स्पष्ट हो जाएगा।

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